शुक्रवार, 23 जुलाई 2021

जातिगत सर्वश्रेष्ठता का भाव और उसके मायने


क्रिकेटर सुरेश रैना द्वारा खुद को ब्राह्मण बताने और रविंद्र जडेजा द्वारा खुद को राजपूत बताने पर उन्हें आलोचना का सामना करना पड़ रहा है। आलोचक कह रहे है कि ये लोग जातिवाद और वर्ण व्यवस्था को महिमामंडित कर रहे है। 

सैकड़ो सालो से जातिव्यवस्था और वर्ण व्यवस्था चली आ रही है, पहले यह व्यवस्था कर्म आधारित थी, फिर धीरे धीरे जन्म आधारित होने लगी, फिर धीरे धीरे यह व्यवस्था उच्च जाति-निम्न जाति के भेदभाव और निम्न जाति के सामाजिक, आर्थिक शोषण का साधन बन गयी। जाति और वर्ण के आधार पर  निम्न मान कर लोगो से अमानवीय व्यवहार तक किया जाने लगा था। पर आज़ादी के बाद जाति आधारित और वर्ण आधारित भेदभाव काफी कम हुए है, परन्तु समाप्त नहीं हुए है। अभी भी कई बार जाति आधारित भेदभाव के मामले  देखने मिलते है।

भारत में लोगो को कई आधार पर खुद को दुसरो से ऊपर या सर्वश्रेष्ठ दिखाने की प्रवृति पाई जाती है।  यह प्रवृति मुख्यत: जाति आधारित, धर्म आधारित, क्षेत्र आधारित होती है|  लोगो को लगता है कि वे केवल इसलिए सर्वश्रेष्ठ है कि वो फलाने जाति, या पंथ या क्षेत्र के है।  लोग अपने सोशल मीडिया profile में भी लिखते है, proud hindu, proud Muslim, जय राजपुताना, गर्व से कहो कि हम बिहारी है, गर्व करो कि हम बनिए है…... यहाँ केवल जाति के आधार पर खुद को सर्वश्रेष्ठ नहीं दिखाया जाता है, बल्कि रंग, रूप, आवाज, शरीर की बनावट आदि के आधार पर भी खुद को दुसरो से बेहतर समझते है।

इस तरह का भाव केवल भारत में नहीं बल्कि पश्चिमी देशो में भी रहा है। 100 साल पहले तक यूरोपियनो को भी लगता था कि उनकी नस्ल इस पृथ्वी पर सर्वश्रेष्ठ है, तथा उनका कर्तव्य है कि अन्य नस्लों पर शासन करे। वो अन्य इंसानो को इंसान ना मान कर जानवरो जैसा सलूक करते थे। दासप्रथा इसका सबसे अच्छा उदहारण है, जहाँ मनुष्यों की खरीद बिक्री होती थी, दासो के साथ जानवरो से बदतर सलूक किया जाता था। 

वस्तुत: लोग अपने फायदे के अनुसार अपना सोच रखते है, उन्हें सर्वश्रेष्ठता का भाव ख़ुशी देता है। एक कम पढ़ा लिखा उच्च जाति का व्यक्ति अपने से अधिक पढ़ा लिखा निम्न जाति के व्यक्ति से खुद को सर्वश्रेष्ठ समझ कर खुश होता रहता है। इसी तरह के भाव अन्य आधार पर भी लोग रखते है।

परन्तु इस तरह के सर्वश्रेष्ठता के भाव से समस्या क्या है?

वैसे देखा जाय तो फिलहाल भारत में कोई समस्या नहीं है, सभी लोग एक जैसा नहीं सोच सकते है। लोग अपने विवेक अनुसार सोचते है, जिसमें जितना अधिक विवेक होता है, उनकी सोच और व्यवहार उतना ही अधिक बेहतर होता है। कोई अपने आप को सबसे सर्वश्रेष्ठ समझ सकता है, कोई खुद को भगवान भी समझ सकता है, इसमें अन्य व्यक्ति कुछ भी नहीं कर सकता है। अन्य लोग स्वयं  को क्या समझते है, यह हमारी समस्या नहीं है, समस्या तब उत्त्पन्न होती है, जब दुसरो के सोच के आधार पर हम स्वयं को ऊँचा या नीचा समझने लगते है। 

अब समय काफी बदल चुका है, बिना किसी गुण के सर्वश्रेष्ठता का भाव का कोई मायने नहीं है। कर्म और ज्ञान के आधार पर काबिलियत की ही कद्र है।

रविंद्र जडेजा या सुरेश रैना आपने आप को क्या समझते है, उससे हमें या अन्य लोगो को कोई नुकसान नहीं पहुँच सकता है| हमें नुकसान तब हो सकता है, जब हम स्वयं को नीचा समझने लगे और उस आधार पर व्यवहार करने लगे। वस्तुत: उनके केवल खुद को ब्राह्मण या राजपूत कहने पर प्रतिक्रिया देना या विरोध करना तर्कसंगत नहीं है, यहाँ तक की रविंद्र जडेजा के तलवार चलाने के पोस्ट पर नकारात्मक प्रतिक्रिया देना समझ से परे है। केवल जातीय पहचान बताना या खुद को अपने जाति या धर्म से जोड़ना सर्वश्रेष्ठता दिखाना नहीं कहा जा सकता है। रविन्द्र जडेजा और सुरेश रैना को देश सम्मान उसके जति के आधार पर नहीं बल्कि उसके क्रिकेट खेलने के कौशल के आधार पर देता है। 

वैसे गर्व और सर्वश्रेष्ठता की संकल्पना (concept) बहुत ही छिछले आधार पर टिका है| इंसानो को लगता है कि वो इस पृथ्वी पर सर्वश्रेष्ठ रचना है, सभी जानवर और अन्य सभी वस्तुए उनकी उपभोग के लिए है, कई रिलिजन में भी यह संकल्पना है, जिसमे उस रिलिजन को मानने वाले को सर्वश्रेष्ठ और अन्यो को कमतर माना जाता है, यहाँ तक कई संकल्पना में पुरुष अपने आप को महिला से सर्वश्रेष्ठ मानते है, और उन्हें केवल उपभोग की वस्तु समझते है| इसलिए जब इस तरह के सोच पुरे समुदाय पर हावी हो जाती है,  तब हमें इस सोच की वास्तविक समस्या दिखती है| हिटलर के समय Jewish holocaust तथा अफगानिस्तान में तालिबान के शासन में महिलाओ पर अत्याचार, नस्लीय तथा लैंगिक सर्वश्रेष्ठता जैसी सोच का ही नतीजा है।

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